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वो कारवां मेरे बचपन का

नीला सा आसमान  था मेरे बचपन का उस में उड़ने का अरमान था मेरे बचपन का थी तंग गलियां मेरे मोहल्ले की पर उन में राजा सा सम्मान था मेरे बचपन का वो चढ़ जाना शहतूत के पेड़ पे चलाना जोर से टायर मेन रोड पे खरचना २ रुपए कंचे वाली कुल्फी पे बांधना पट्टियाँ चोटिल दोनों घुटनों पे ये तो बड़ा ही शान का काम था मेरे बचपन का होली पर लगाना रंग टूटी मुंडेर से उड़ना पतंग बारिश में चलाना नाव नहाना ख़ूब ओलों में जनाब जन्माष्टमी पे लगाना झांकिया दशहरे पे तीर कमान दिवाली पे जलाना हाथ मिल कर भाई के साथ ये तो बड़ा ही अनिवार्य काम था मेरे बचपन का वो बोरिंग के नीचे नहाना वो पडोसी की घंटी बजाना वो क्रिकेट में रोमंची खाना लेके अपनी बैटिंग बोलिंग से मुकर जाना ये तो बड़ा ही साहसी काम था मेरे बचपन का नीला सा आसमान  था मेरे बचपन का उस में उड़ने का अरमान था मेरे बचपन का थी तंग गलियां मेरे मोहल्ले की पर उन में राजा सा सम्मान था मेरे बचपन का जाने कहां छूट गया वो पल मेरे बचपन का वो कारवां मेरे बचपन का

काहे की दोस्ती

जो खिलखिला के हँसी देख कर  मुझको दुखी देख कर मेरी हँसी जो हो गई चिडचिडी जो दोस्ती हो मतलब पर टिकी वो दोस्ती काहे की दोस्ती जो दारु पीने से पहले रोते रहे जो दारु पी कर भी फ़िर रो पड़े जिन जिन को हम नहीं थे पसंद उन उन से हम क्यों जा भिड़े जो बर्बादी हमारी की हसरत लिये मिलते रहे दिल में नफ़रत लिये जब ज़रुरत पड़ी तो लात मार दी दोस्ती की वो झूठी तस्वीर फाड़ दी वो वहाँ है पड़ी इज्ज़त मेरी जो दोस्तों ने मेरी पूरी उतार दी जो न आई काम समय पर कभी वो दोस्ती काहे की दोस्ती 

हर समस्या का हल संवाद नहीं होता

कुछ संवाद ऐसे जिनका आदि तो होता है अंत नहीं होता जब आसुंओं से भी न भरे जख्म तो उनका कोई मलहम नहीं होता ऐसे में जब आग उगलते  हैं शोले तो मसले हल भी होते हैं कि हर समस्या का हल संवाद नहीं होता जब चलती हैं आंधियां तो पेड़ झुक भी जाते हैं फ़िर बातें बहोत की हमने पर अब और परोपकार नही होता जब आग उगलते  हैं शोले ... फ़िर बिना तूफानों के भी डूब जाती हैं किश्तियाँ सभी किश्तियों का मझदार नहीं होता जब आग उगलते  हैं शोले ... है गरज हमे वतन के शहीदों की कि हर नाग का फ़न कुचलना जानते हैं हम जाया कभी शहीदों का बलिदान नहीं होता जब आग उगलते  हैं शोले ... बंद दरवाजों में भी सुलगती हैं चिंगारियां कि हर चिंगारी का आगाज़ सरेआम नहीं होता जब आग उगलते  हैं शोले ... बचपन में कभी पड़ी थी कहानी जो खूब लड़ी थी वो थी झांसी की मर्दानी कह दो बुजदिलों से खून सिर्फ मर्दों का लाल नहीं होता जब आग उगलते  हैं शोले ... कहते हैं वो "ठीक है" भाषण के अंत में अरे इतना निर्मम तो समाज का गद्दार नहीं होता बन बैठे प्रधानमंत्री बिना चुनाव के क्या ये जनतंत्र