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हर समस्या का हल संवाद नहीं होता

कुछ संवाद ऐसे जिनका आदि तो होता है अंत नहीं होता जब आसुंओं से भी न भरे जख्म तो उनका कोई मलहम नहीं होता ऐसे में जब आग उगलते  हैं शोले तो मसले हल भी होते हैं कि हर समस्या का हल संवाद नहीं होता जब चलती हैं आंधियां तो पेड़ झुक भी जाते हैं फ़िर बातें बहोत की हमने पर अब और परोपकार नही होता जब आग उगलते  हैं शोले ... फ़िर बिना तूफानों के भी डूब जाती हैं किश्तियाँ सभी किश्तियों का मझदार नहीं होता जब आग उगलते  हैं शोले ... है गरज हमे वतन के शहीदों की कि हर नाग का फ़न कुचलना जानते हैं हम जाया कभी शहीदों का बलिदान नहीं होता जब आग उगलते  हैं शोले ... बंद दरवाजों में भी सुलगती हैं चिंगारियां कि हर चिंगारी का आगाज़ सरेआम नहीं होता जब आग उगलते  हैं शोले ... बचपन में कभी पड़ी थी कहानी जो खूब लड़ी थी वो थी झांसी की मर्दानी कह दो बुजदिलों से खून सिर्फ मर्दों का लाल नहीं होता जब आग उगलते  हैं शोले ... कहते हैं वो "ठीक है" भाषण के अंत में अरे इतना निर्मम तो समाज का गद्दार नहीं होता बन बैठे प्रधानमंत्री बिना चुनाव के क्या ये जनतंत्र